शापित अनिका: भाग ७

मिशा ने सिड़ को घर जाने का हुक्म सुनाया और खुद अस्पताल में रहकर आशुतोष की देखभाल का जिम्मा उठाया। उसे अपने मां- बाप पर जरा भी भरोसा नहीं था, लेकिन सिड़ ने घर जाने से मना कर दिया और कैंटीन में चाय की चुश्कियां लेने पहुंच गया। मिशा मि. श्यामसिंह और विमला देवी से काफी नाराज थी और उन्हें भला- बुरा सुनाकर उनसे कुछ दूर पर एक बेंच पर जाकर बैठ गई। विमला देवी गुस्से में कुछ कहा ही चाहती थी कि मि. श्यामसिंह ने विमला देवी को को गुरूजी की तरफ इशारा किया जो सामने से अपने शिष्य शिवानंद के साथ आ रहे थे। दोनों लपककर उनके पास पहुंचे।


"शिवदास जी! आशुतोष...." श्यामसिंह कुछ कहना चाहते थे कि स्वामी शिवदास ने हाथ उठाकर उन्हें शांत रहने का इशारा किया- "हम जानते हैं श्यामसिंह। हमें आशुतोष के साथ होने वाली दुर्घटना भान हो गया था। उसके जीवन से संकट टालने के लिये हमें अनुष्ठान करना पड़ा, जिस कारण हमें आने में विलंब हो गया।"


"गुरूजी! क्या ये सब उस श्राप का...." विमला देवी की बात काटते हुये स्वामी जी बोले- "हां देवी! ये सब उसी श्राप का परिणाम है। अघोरा हमारे अनुमान से अधिक शक्तिशाली हो गया है। यदि शीघ्र ही उसे रोका नहीं गया तो इसका दुष्परिणाम केवल आपके परिवार को ही नहीं, अपितु समस्त संसार को भोगना पड़ेगा।"


"तो अब क्या उपाय है गुरूजी?" विमला देवी ने पूछा।


"समय आ गया है कि अब आशुतोष और अनिका को उसकी वास्तविकता से परिचित कराया जाये।" स्वामी शिवदास जी ने कहा।


"ये अनिका कौन है!" श्यामसिंह ने चौंककर पूछा।


"आप उनसे मिल चुके हैं।" स्वामी जी मुस्कुराकर बोले- "जिस कन्या ने आशुतोष की प्राणरक्षा में सहायता की थी उसी का नाम अनिका है। इस श्राप के अंत में वही आशुतोष की सहायक होंगी।"


"परन्तु गुरूजी! डॉक्टर ने आशुतोष को आराम करने को कहा है और उसे नींद का इंजेक्शन भी दिया है।" श्यामसिंह ने बताया।


"कोई बात नहीं, वैसे भी सूर्योदय तक तो हमें प्रतीक्षा करनी ही थी।" शिवदास जी मुस्कुराये। तभी उनकी नजर उत्सुक नजरों से अपनी ओर ताकती मिशा पर पड़ी।



मिशा यूं तो श्यामसिंह और विमला देवी पर बहुत गुस्सा थी, लेकिन उन्हें किसी साधु से बात करते देख उसकी उत्सुकता जाग गई। जब स्वामी शिवदास ने उसे देखा तो झेंपकर वो दूसरी तरफ देखने लगी। स्वामी शिवदास ने अपने कदम मिशा की तरफ बढ़ा दिये और उसके पास पहुंचकर मुस्कुराकर बोले- "तो आप हैं मिशा!"


"नमस्ते स्वामी जी।" मिशा ने सिर झुका कर कहा।


"सदा सुखी रहो।"स्वामी शिवदास ने स्नेहपूर्वक आशीष दिया- "पुत्री! तुम्हारा धन्यवाद करने के लिये तो हमारे पास शब्द ही नहीं है।"


"मैनें ऐसा क्या किया है?" मिशा चौंककर बोली।


"पुत्री! आशुतोष के प्रति तुम्हारा निस्वार्थ प्रेम और सेवा- भाव ही है जिसने उसे पतन के मार्ग पर जाने से रोका है अन्यथा अच्छे से अच्छे मनुष्य के साथ जब ऐसा तिरस्कृत व्यवहार किया जाये, तो उसके मन में भी विद्रोह की भावना प्रबल हो जाती है। तुमने जो किया है, तुम्हें अभी उसका भान नही है परन्तु समस्त सृष्टि तुम्हारे उपकारों तले दबी हुई है।"


"हां.... हो भी सकता है।" मिशा ने गहरी सांस छोड़ी। स्वामी शिवदास की सारी बातें उसके सिर के ऊपर से जा रही थी।


इधर ये बातें हो ही रही थी कि आशुतोष के वार्ड से "धम्म" की आवाज आई। आवाज सुनकर सभी लोग दौड़कर वार्ड के अंदर गये लेकिन जैसे ही वार्ड में कदम रखा तो पाया कि आशुतोष जमीन पर गिरा पड़ा है और उसके सिर व छाती से खून बह रहा है, जिससे पट्टियां सनी हुई हैं।


"भाई...." आशुतोष की हालत देखकर मिशा की चीख निकल गई। मि. श्यामसिंह और शिवानंद दौड़कर आशुतोष के पास पहुंचे और उसे सहारा देकर बेड़ पर लेटाया।


"ये सब कैसे हुआ?" मिशा आशुतोष पर फट पड़ी- "अगर आपको कोई चीज चाहिये थी तो मुझे आवाज लगा देते! मैं डॉक्टर को बुलाकर लाती हूं।" कहकर मिशा जैसे ही बाहर जाने को हुई, आशुतोष ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लिया।


"मैं ठीक हूं मिशा।" आशुतोष ने कराह मिश्रित हंसी के साथ कहा- "बस सपना देख रहा था। अघोरी का एक और अटैम्प फेल हो गया।"


अघोरी का नाम सुनते ही मि. श्यामसिंह और विमला देवी के साथ- साथ स्वामी शिवदास भी सुन्न हो गये।


"अघोरा...." स्वामी शिवदास ने विस्तारित नेत्रों से आश्चर्यपूर्वक कहा।


"हां, क्या पता जेण्ट्स अघोरियों को अघोरा कहते हों?" आशुतोष ने कहा तो मिशा ने फीकी मुस्कुराहट दी।


"लेकिन सपने का और तुम्हारे गिरने का क्या कनेक्शन है?" मिशा चकराई सी लग रही थी।


"पता नहीं...." आशुतोष ने गहरी सांस छोड़ी- "उसने सपने में मेरा गला पकड़ कर फेंका और मैं यहां दीवार से टकराकर गिर पड़ा।" कहकर आशुतोष ने अपनी गर्दन पर हाथ फेरा, जिसपर किसी की पकड़ का निशान साफ दिख रहा था।


"पता नहीं क्यूं पर हर सपने के बाद उसके दिये घाव मेरे शरीर पर उभर आते हैं।" आशुतोष ने शून्य में देखकर कहा।


"ये तो कोई प्रेत- बाधा लगती है।" शिवानंद ने निशान को गौर से देखते हुये कहा तो मिशा और आशुतोष उसे घूरने लगे।


"नहीं पुत्र!" स्वामी शिवदास चिंतित होकर बोले- "ये उससे भी बड़ी समस्या है।"


"ओह रियली?" मिशा ने मजाक उड़ाते हुये कहा- "वाऊ डैड़, लगता है नई चाल चली जा रही है।"


"मिशा प्लीज...." विमला देवी डांटते हुये बोली- "एक बार पहले बात तो सुन लो वर्ना जिस बारे में पता न हो उस बारे में चुप रहना सीख लो।"


"अगर मैं नहीं जानती तो आप बता दीजिये।" मिशा की आंखों से अंगारे बरस रहे थे।


"आशु बेटा!" मि. श्यामसिंह ने सालों बाद यह संबोधन किया तो आशुतोष की आंखें भर आई- "हमारे खानदान पर पुश्तों से ये श्राप है कि हमारे वंश का पहला बेटा पच्चीस साल का होते ही ये दुनिया छोड़ जाता है।"


"ओह, तो ये नया ड्रामा रचा जा रहा है। आप अब इस शाप- वाप के सहारे मेरे भाई को मारने का प्लान कर रहे हो? आखिर उनकी जान आप पर इतनी भारी क्यूं पड़ रही है?" मिशा का गुस्सा आखिरकार फूट पड़ा- "लेकिन एक बात याद रखना मि. श्यामसिंह.... मिशा के होते हुये आप उसके भाई का बाल भी बांका नहीं कर सकते। ईवन अब तो मुझे लग रहा है कि कहीं ये एक्सीडेंट भी आपने ही तो नहीं करवाया?"


"मिशा...." आशुतोष प्यार से समझाते हुये बोला- "एक बार उनकी बात सुन तो लो। ये गले का निशान तो तुम भी देख ही रही हो। क्या बिना कमरे में आये ऐसा निशान देना मुमकिन है?"


मिशा आशुतोष की बात सुनकर चुप तो हो गई लेकिन उसने आग्नेय नेत्रों से उन लोगों को घूरना बंद नहीं किया। मिशा को नजरअंदाज करते हुये स्वामी शिवदास बोले- "ये सत्य है वत्स! और जिस अघोरा ने ये श्राप दिया है, वही तुम्हारी हत्या का प्रयास कर रहा है।"


"लेकिन स्वामी जी! अगर ये श्राप सालों से चला आ रहा है तो वो अघोरा अब तक जिंदा कैसे है कि मुझे मारने की कोशिश कर रहा है?" आशुतोष ने पूछा।


"किसने कहा कि वो जीवित है? परन्तु मृत्यु के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली अपितु वो अपनी सिद्ध शक्तियों में निरंतर वृद्धि करता रहा और अब सम्पूर्ण मानवता के लिये एक संकट बन चुका है।" स्वामी शिवदास ने कहा।


"हैलो.... क्या कोई एमरजेंसी मीटिंग चल रही है?" सबकी नजर दरवाजे की ओर घूमी तो पाया दरवाजे पर सिड़ खड़ा था।


"स्वामी जी! यदि आज्ञा हो तो मैं प्रकृति की पुकार का जवाब दे आऊं?" आशुतोष ने शुद्ध हिंदी में कहा तो मिशा की हंसी छूट गई। आशुतोष ने मिशा को घूरा और फिर स्वामी जी से बोला- "मुझे सिचुएशन को समझने के लिये थोड़ा टाइम चाहिये। क्या आप कुछ देर बाहर इंतजार कर सकते हैं?"


श्यामसिंह और विमला देवी ने चिंतित निगाहों से स्वामी शिवदास को देखा। स्वामी जी मुस्कुराते हुये बोले- "अवश्य!" और सबको लेकर वार्ड़ से बाहर निकल गये। आशुतोष सिड़ का सहारा लेकर बाथरूम में घुसा।


"यार दिमाग का दही बन गया है। चल एक सिगरेट पिला दे!" आशुतोष दीवार के सहारे खड़े होते हुये सिड़ से बोला।


"मेरे पास कहां से...." सिड़ बोल रहा था कि आशुतोष ने उसे घूरते हुये कहा- "बड़ा भाई हू तेरा। भले बोलता कुछ नहीं हूं, लेकिन जानता सब हूं।"


आशुतोष ने सिड़ की पैंट की पॉकेट में हाथ ड़ालकर गोल्ड- फ्लैक की डिबिया और लाइटर बरामद किया और एक सिगरेट सुलगा ली। सिड़ लज्जाभाव से आशुतोष को घूरने लगा।


"अब क्या मेरा नाड़ा भी खोलेगा?"आशुतोष चिढ़कर बोला।


"नहीं पर मेरी डिब्बी तो लौटाओ...." सिड़ झेंपते हुये बोला और आशुतोष से डिबिया और लाइटर लेकर बाहर भाग खड़ा हुआ।



* * *



ठाकुर विशम्भरनाथ अनिका को लेकर सुबह के करीब चार बजे भवानीपुर पहुंचे। करीब दस घंटे की ड्राइविंग से वो बुरी तरह थक चुके थे लेकिन अनिका ने गाड़ी में एक हल्की सी झपकी ले ली थी। अरूणिमा जी भी अबतक जागकर इन लोगों का रास्ता देख रही थी।


"मां...." गाड़ी से उतरते ही अनिका उनके गले से लिपट गई।


"मेरी प्यारी बच्ची!" अरूणिमा जी ने उसके गाल सहलाये।


"आप अब तक सोई नहीं?" ठाकुर साहब ने अरूणिमा जी से पूछा।


"नहीं, चिंता से नींद ही नहीं आई।"


"हम्म...." ठाकुर साहब ने एक नजर अरूणिमा जी पर ड़ाली और अनिका से कहा- "गुड़िया.... पांच बजे तक हमें कुलदेवी के मंदिर जाना है। तुम तैयार रहना।"


"जी पापा...." अनिका ने मुस्कुराकर कहा और फिर अरूणिमा जी से बोली- "मां, क्या एक कप कॉफी मिलेगी प्लीज?"


"क्यूं नहीं मेरी बच्ची! तुम अपने कमरे में जाकर आराम करो, मैं कॉफी भिजवाती हूं।" अरूणिमा जी ने मुस्कुराकर कहा और किचन की तरफ बढ़ गईं। अनिका भी तेजी से अपने कमरे में जा घुसी। 


कुछ ही देर में अरूणिमा जी ने कॉफी भिजवाई।

कॉफी पीकर अनिका को फ्रेश महसूस हुआ और वह आलमारी से कपड़े लेकर बाथरूम में जा घुसी। शावर ऑन करते ही उसका ध्यान फिर आशुतोष के ख्यालों में चला गया। करीब आधा घंटा शावर में बिताकर अनिका बाहर आई और ड्रायर से बाल सुखाकर जूड़ा बना लिया। अभी बमुश्किल पांच मिनट ही बीते होंगे कि अरूणिमा देवी ने उसके कमरे में प्रवेश किया।


"तुम तैयार हो अनिका? हमें निकलना है।" अरूणिमा जी आते ही बोलीं।


"हां मां, चलिये!" अनिका चट से बिस्तर पर से उठ गई।


"सोचा था कि जब तुम आओगी, तो आराम से बैठकर बातें करूंगी। कितनी ही बातें हैं बताने को और कितनी ही जानने को लेकिन कमबख्त समय की मार!" अरूणिमा देवी ने प्यार से अनिका का माथा चूमकर कहा।


"अरे मां! आप क्यूं परेशान हो रहीं हैं? मंदिर से आकर आराम से बातें करेंगें न!" अनिका ने बांहों के हार अरूणिमा जी के गले में डाल दिये।


"देहरादून जाकर बड़ी समझदार हो गई है।" अरूणिमा जी ने मुस्कुराकर अनिका का सिर थपथपाते हुये कहा।


"वो तो मैं बचपन से ही हूं। आपने कभी ध्यान नहीं दिया होगा।" अनिका की बात पर दोनों मां- बेटी हंसने लगे तभी बाहर से ठाकुर विशम्भरनाथ ने आवाज लगाई- "अरे भाई जल्दी करो! ज्यादा वक्त नहीं है।"


"आई पापा...." अनिका ने जवाब दिया और दोनों बाहर चल दिये।



"क्या बाते हो रहीं थीं दोनों मां- बेटी में?" ठाकुर साहब ड्राइविंग सीट बैठते हुये बोले।


"वो हमारे आपस की बातें हैं।" अरूणिमा देवी मुस्कुराईं।



नियत समय पर ठाकुर साहब की गाड़ी कुलदेवी बूंगी देवी के मंदिर के आगे खड़ी थी। तीनों गाड़ी से उतरे तो पाया कि स्वामी अच्युतानंद व्याकुलता से उनका इंतजार कर रहे थे। तीनों ने स्वामी जी को प्रणाम किया और आशीर्वाद पाया।


"आइये ठाकुर साहब! आप बिल्कुल ठीक समय पर आये हैं। हमारी तैयारी भी पूरी है।" अच्युतानंद जी बोले और तीनों को मंदिर के गर्भगृह में ले जाकर कुलदेवी के दर्शन करवाये।


"अब आप दोनों यहां से प्रस्थान कर बाहर हमारी प्रतीक्षा कीजिये। आगे की वार्ता हमारे और अनिका के मध्य गुप्त रहेगी।" स्वामी अच्युतानंद ने कहा तो अनमने भाव से ठाकुर विशम्भरनाथ और अरुणिमा जी मंदिर- कक्ष से बाहर चले गये।


"अनिका! हम जानते हैं कि इस समय आपके मस्तिष्क में हजारों प्रश्न हैं परंतु किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व हम चाहते हैं कि तुम अपने परिवार में कई पीढ़ियों से चले आ रहे श्राप के बारे में जान लो।" स्वामी अच्युतानंद ने पद्मासन लगाकर अनिका को भी बैठने का इशारा किया।


"यही तो मैं जानना चाहती हूं कि वो कौन सा श्राप है जिससे मैं अब तक अनजान हूं और जिसको याद करने भर से पिताजी इतना ड़र गये थे।" अनिका ने व्याकुलता से पूछा।


"ये जानने के लिये तुम्हें उस श्राप को जानना होगी इसलिये धैर्यपूर्वक मेरी बात सुनो।" स्वामी जी बोले- "ये श्राप तुम्हारे परिवार में पिछले हजार वर्षों से चला आ रहा है परन्तु एक और परिवार है, जो इस श्राप को भुगत रहा है और तुम तथा उस परिवार का वंशज.... एक साथ मिलकर ही इस श्राप को तोड़ सकते हो।"


"लेकिन ये श्राप हमारे परिवारों को मिला कैसे?" अनिका ने प्रश्न किया।


अनिका का प्रश्न सुन स्वामी अच्युतानंद मुस्कुराकर बोले- "ये कथा तो काफी वृहद है इसलिये तुम इसका सार सुनो- 


आज से करीब हजार वर्ष पूर्व की बात है। उस समय आज का उत्तराखंड केदारखंड और कूर्मांचल दो भागों में विभक्त था। उस समय केदारखंड पर चन्द्रवंशी नरेश सत्यभानु का शासन था, जो पांडवो के वंशज थे। उन्होनें सम्पूर्ण राज्य को बावन प्रांतो में बांटकर वहां के स्थानीय सामंतो को उन बावन गढ़ों का अधिपति नियुक्त किया। इन गढ़ों के भी अनेकों उपगढ़ बनाये गये। एक प्रकार से समस्त गढ़पति राजा के सेनापति थे, जिनको अपने क्षेत्र में राजा के समान शक्ति प्राप्त थी और वह राजा सत्यभानु के प्रति समर्पित रहकर अपने गढ़ों पर शासन करते थे तथा राजा सत्यभानु को कर तथा सैन्य- सुविधा प्रदान करते थे।


इन्हीं बावन गढ़ों में से एक गढ़ था- बदलगढ़, जहां के गढ़पति थे सामंत धर्मपाल सिंह। धर्मपाल सिंह अपने नाम के अनुरूप ही प्रजावत्सल और धार्मिक प्रवृति के थे। वो प्रजा से मात्र उतना ही कर लेते, जितने में राजा के कर और सैनिकों के वेतन की व्यवस्था हो जाये। प्रजा की संपत्ति की व्यय न कर वो एक साधारण जीवन व्यतीत करते। इससे शीघ्र ही उनका प्रताप पूरे केदारखंड में फैल गया। धर्मपाल सिंह की पुत्री माधुरी अत्यंत रूपवान और सुलक्षणा थी, जिसे कांडगढ़ के राजकुमार विक्रमसिंह से प्रेम था।


कांडगढ़ एक उपगढ़ था जो धूम सिंह रावत के अधीन था। वो और उनके दोनों पुत्र लोहासिंह और विक्रमसिंह अपनी वीरता के लिये पूरे केदार- क्षेत्र में प्रसिद्ध थे। विक्रमसिंह और लोहासिंह भाई कम और मित्र अधिक थे। विक्रमसिंह जहां विनम्र और अपने में संतुष्ट रहने वाला था तो वहीं उसका बड़ा भाई लोहासिंह बहुत महत्वाकांक्षी था। उसे विक्रमसिंह और माधुरी के प्रेम में भी अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति दिखाई देती थी, क्योंकि धर्मपाल सिंह अत्यंत वृद्ध थे और उनका पुत्र देवेन्द्र अभी बालक था इसलिये विवाह के पश्चात् बदलगढ़ पर कांडगढ़ का ही आधिपत्य रहता।


उधर महाराज सत्यभानु के कानों में जब सामंत धर्मपाल सिंह की धार्मिकता और प्रजा- वात्सल्य का समाचार पड़ा तो वे अत्यंत हर्षित हुये, परन्तु उन्होनें धर्मपाल सिंह की परीक्षा लेने की ठानी और अपने कुलगुरू अघोरा को इस कार्य का जिम्मा सौंपा। अघोरा तंत्र- शास्त्र का ज्ञाता महापंडित था, जिसके वश में अनेकों सिद्धियां थी। उसकी सिद्धियों के प्रभाव से ही राजा सत्यभानु का राज्य धन- धान्य से भरा- पूरा रहता था और राज्य में कभी बाढ़- अकाल या महामारी नहीं फैलती थी।


राजा की आज्ञा पाकर अघोरा बदलगढ़ पहुंचा तो उसे समाचार मिला कि शीघ्र ही धर्मपाल सिंह अपनी पुत्री का विवाह कांडगढ़ के छोटे राजकुमार विक्रमसिंह से करने वाले हैं और एक माह पश्चात् वाग्दान की विधि है। वाग्दान विवाह- रीति का एक पद होता है, जिसमें विवाह से पूर्व कन्या का पिता वर को अपनी पुत्री का विवाह उससे करवाने का वचन देता है। अघोरा को जब यह समाचार मिला तो वह उसे एक कौतुक सूझा।


उसने एक गाय और एक बैल का जोड़ा लेकर महल में प्रवेश किया। ये प्राचीन- काल में आर्ष विवाह की पद्यति थी। उस समय जब कोई साधु एक गाय- बैल का जोड़ा लेकर कन्या के पिता के पास जाता था तो इसका अर्थ होता था कि वो साधु कन्या से विवाह करना चाहता है। धर्मपाल सिंह अघोरा को देखकर धर्मसंकट में पड़ गये। न तो वो भिक्षु साधु को द्वार से भगा सकते थे और न ही उसका आग्रह स्वीकार कर सकते थे। तो उन्होनें बड़ी विनम्रता पूर्वक अघोरा से कहा- "महाराज! आप मेरी कन्या से विवाह करना चाहते हैं, ये मेरे लिये बड़े हर्ष का विषय है, परन्तु मेरी पुत्री का विवाह कांडगढ़ के राजकुमार विक्रमसिंह के साथ नियत हो रहा है और वो भी उससे प्रेम करती है।"


अघोरा ने मुस्कुराकर जवाब दिया- "अधिपति, कन्या को उसका पिता जिसे चाहे उस व्यक्ति को दान कर सकता है और अभी तो आपकी पुत्री का वाग्दान भी नहीं हुआ है इसलिये आप किसी भी वचन से बंधे नहीं है कि वचनभंग के दोषी बनें। अच्छी तरह सोच लीजिये कि क्या द्वार से एक साधु को बिना इच्छित दान दिये लौटा दोगे? हम तुम्हें तीन दिवस का समय देते हैं।" इतना कहकर अघोरा ने वो गाय- बैल का जोड़ा वहीं छोड़ा और महल से निकल गया।


ये खबर जैसे ही कांडगढ़ पहुंची तो सब सन्न रह गये। लोहासिंह के भविष्य की सभी योजनाओं पर तुषारापात हो गया और विक्रमसिंह पर तो मानों वज्रपात हो गया हो। काफी सोच- विचार कर धूमसिंह ने विक्रमसिंह से कहा- "विक्रम! न जाने ये कौन सा ढोंगी साधु आ पहुंचा है, जो ये प्रपंच कर रहा है। तुम अपने प्रेम को इस प्रकार नहीं छोड़ सकते। हम क्षत्रियों में हरण- विवाह की भी प्रथा प्रचलित है इसलिये तुम माधुरी का हरण कर उससे विवाह कर लो।" काफी सोच- विचार के बाद विक्रमसिंह को भी पिता की सलाह उचित जान पड़ी और दोनों भाई बदलगढ़ की ओर निकल पड़े।


उधर तीन दिन बीत चुके थे। नाटक का आखिरी अंक दिखाने अघोरा बदलगढ़ के महल में जा पहुंचा। राजा धर्मपाल तो अघोरा को मना करने वाले थे परन्तु माधुरी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि विक्रमसिंह कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेंगें इसलिये वो बिना संकोच उन्हें हां कह दे। लेकिन कामपीड़ित मनुष्य जो करे वो कम है। जैसे ही धर्मपाल सिंह माधुरी को लिये द्वार पर आये, माधुरी का रूप- लावण्य देखकर अघोरा उस पर आसक्त हो गया। धर्मपाल सिंह ने जैसे ही अघोरा से कुछ कहना चाहा, तभी विक्रमसिंह और लोहासिंह घोड़ों पर सवार होकर वहां आ पहुंचे।विक्रमसिंह को देखकर माधुरी के मुख पर प्रसन्नता दौड़ गई। 


"मैं आपकी विवशता को समझ सकता हूं परन्तु इतनी सरलता से मैं अपने प्रेम का परित्याग नहीं कर सकता।" विक्रमसिंह ने धर्मपाल सिंह से कहा और माधुरी को खींचकर अपने घोडें पर बैठा लिया। 


अघोरा पर तो कामबाण चल चुका था और उसे विश्वास हो चला था कि अगर वो विक्रमसिंह को माधुरी को ले जाने से रोक ले, तो धर्मपाल सिंह माधुरी का विवाह उससे कर देंगें इसलिये वो विक्रमसिंह को रोकने की कोशिश करने लगा। 


"माफ करना बाबा, परन्तु ये मेरी अर्धांगिनी है।" कहकर विक्रमसिंह ने घोड़े को ऐड़ लगा दी लेकिन कामासक्त अघोरा विक्षिप्तों की भांति उन पर प्रहार करने लगा। विक्रमसिंह तो किसी तरह पीछा छुड़ाकर भाग निकला, लेकिन अघोरा की इन हरकतों ने लोहासिंह की क्रोधाग्नि में घी का काम किया।


लोहासिंह घोड़े से उतरा और अघोरी को पीटने लगा। जब धर्मपाल सिंह और उनके सिपाहियों ने उसे रोकने की कोशिश की तो उसे अपने साथ घोड़े पर बिठाकर ले भागा। पिटाई के बाद जब अघोरा के सिर से काम का भूत भागा तो उसने लोहासिंह को अपना परिचय दिया और बताया कि राजा सत्यभानु के कहने पर वो धर्मपाल सिंह की परीक्षा ले रहा था। उसने लोहासिंह से क्षमा मांगी और स्वयं को मुक्त करने का अनुरोध किया परन्तु लोहासिंह का क्रोध इतना प्रचंड रूप धारण कर चुका था कि उसे धर्म- अधर्म की कोई चिंता ही न रही। उसने अघोरा को एक पेड़ से बांधकर आग के हवाले कर दिया।


जब तक धर्मपाल सिंह अपने सैनिकों के साथ पहुंचे, आग भीषण रूप धारण कर चुकी थी। अपने अंत को देखते हुये अघोरा अत्यंत क्रोधित हुआ और उसके क्रोध की चपेट में कांडगढ़ और बदलगढ़ के राजपरिवार आ गये। जब धर्मपाल सिंह लोहासिंह को धर्म- अधर्म बता रहे थे तो अघोरा क्रोधित होकर बोला- "धर्मपाल सिंह.... मैं राजा सत्यभानु का गुरू अघोरा हूं और उनके अनुरोध पर ही तुम्हारी धर्म- परीक्षा लेने आया था परन्तु एक साधु का अपमान होते देखते हुये भी तुमने रोकने का प्रयत्न नहीं किया। आज के बाद तुम्हारे कुल की प्रत्येक कन्या पर मेरा अधिकार होगा। तुम्हारे कुल की जिस भी कन्या की वय माधुरी के समकक्ष होगी उसे मैं अपने साथ ले जाऊंगा और यदि उसका विवाह कराने की चेष्टा की तो उसे उस कन्या और वर का अंतिम दिवस जानना।"


इसके बाद लोहासिंह को देखकर बोला- "तुम्हारा छोटा भाई मुझपर बिना प्रहार किये चले गया परन्तु मेरी सत्यता से अवगत होकर भी तुमने अपने अहं, शक्ति और लोभ के मद में मेरी ऐसी दुर्गति की है। मेरा श्राप है कि तेरे कुल का प्रत्येक ज्येष्ठ पुत्र पच्चीस वर्ष की आयु पूर्ण करते ही मेरी ही तरह निर्मम मृत्यु को प्राप्त करेगा। जिन विक्रम और माधुरी के मिलन को ढा़ल बनाकर तुमने ये कुकृत्य किया है, आज रात्रि तेरे साथ ही उनकी मृत्यु भी हो जायेगी। यदि आदिशिव के चरणों में मेरी सच्ची प्रीति हो तो मेरे ये अंतिम वचन खाली नहीं जायेंगें।" कहकर अघोरा ने अपने प्राण त्याग दिये।


धर्मपाल सिंह के बाद उनके पुत्र देवेन्द्र ने उनके वंश को आगे बढ़ाया और तुम उन्हीं की वंशज हो। अघोरा के श्रापानुसार लोहासिंह, विक्रमसिंह और माधुरी उसी रात्रि काल के गाल में समा गये।" स्वामी अच्युतानंद ने कहा- "लोहासिंह के दो पुत्र थे जिन्होनें धूमसिंह के वंश को आगे बढ़ाया और तुम्हारी जान बचाने वाला आशुतोष उन्हीं का वंशज है और इस श्राप को तोड़ने में भी वही तुम्हारी सहायता करेगा।"



* * *



क्रमशः




 ----अव्यक्त



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2 Comments

Pamela

02-Feb-2022 01:54 AM

Bahut achchi kahani likhte hn aap sir, apki lekhny me Jadu h

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Pihu jaiswal

20-Jul-2021 04:11 PM

Bahut achchhi story likhe ho bhai 👍👌👌👌👌👌👌👌 ab Ashutosh jayega aghora ke pas Uttar dene

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